गुज़री रातों के तसलसुल से कोई क्या निकले हम जिसे तेरी तरह चाहें तुझी सा निकले जैसे वो जान नज़र आँख झपकता निकले रात की कोख से ऐसा कोई तारा निकले उस पे क्या जानिए क्या क्या न गुज़रती होगी तुम तो ये सोच रहे हो वो इधर आ निकले चुप रहो इक दो-घड़ी के लिए रोने वालो ऐन मुमकिन है कोई हँसता हुआ आ निकले राह में फूल खिलेंगे तो चुभन भी होगी घर में बैठूँ तो मिरी आँख का काँटा निकले रात जलती है सुलगते हुए सहरा की तरह दर्द अगर हो तो किसी आँख से दरिया निकले