गुल-ओ-गौहर तो क्या हर शय में है जल्वा अयाँ तेरा ख़ुदाया बे-निशाँ हो कर मिला हम को निशाँ तेरा तिरे अब्र-ए-करम से परवरिश मख़्लूक़ पाती है इलाही जा-ब-जा है फ़ैज़ का दरिया रवाँ तेरा पुकारा दैर में नाक़ूस से तुझ को बरहमन ने हरम में नाम ज़ाहिद ने लिया वक़्त-ए-अज़ाँ तेरा तिरी रहमत का लंगड़े और लूलों को सहारा है इलाही नाम-ए-आली है असा-ए-ना-तवाँ तेरा शरर पत्थर से जब निकला तो हम को ये हुआ साबित कि हर ज़र्रे में पिन्हाँ हो गया हुस्न-ए-निहाँ तेरा फ़ना हो जाने वाले कार-ख़ाने हैं ज़माने के रहेगा नाम बाक़ी ख़ालिक़-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरा तिरी मौजूदगी हर शय में जुज़्व-ओ-कुल से साबित है मगर हसरत है फिर भी तो नहीं मिलता निशाँ तेरा करम ऐ अब्र-ए-रहमत तिश्नगान-ए-आब-ए-उल्फ़त पर मदद ए मौज-ए-शफ़क़त जाँ-ब-लब है नीम-जाँ तेरा गुनह सब बख़्श देना लुत्फ़ से 'अकबर' के महशर में भरोसा है इसे ऐ मालिक-ए-हर-दो-जहाँ तेरा