एक आलम उस को रोता ही रहा 'अकबर' अपनी नींद सोता ही रहा मैं न समझा सर्द-ओ-गर्म-ए-रोज़गार उम्र भर इन को समोता ही रहा मेरे अरमानों की कसरत देखना आसमाँ को उज़्र होता ही रहा नफ़ा और नुक़सान-ए-हस्ती क्या बताऊँ इस क़दर पाया कि खोता ही रहा मेरे दिल में उन के मिज़्गाँ का ख़याल एक बर्छी सी चुभोता ही रहा हिर्स-ए-जन्नत दिन-ब-दिन बढ़ती गई मुफ़्त ज़ाहिद उम्र खोता ही रहा हम उमीद-ए-वस्ल पर जीते रहे अह्द पूरा उन का होता ही रहा कूचा-ए-सफ़्फ़ाक कब ख़ाली रहा इक न इक का ख़ून होता ही रहा जो हुनर 'अकबर' ने याँ पैदा किया आसमान उस को डुबोता ही रहा