गुलाब की रुत से जा के पूछो थे पर मिरे पास तितलियों के मगर वो चश्म-ए-ज़दन कि तौबा पहाड़ टूटे थे बदलियों के वो सारा इल्ज़ाम सर पे ले कर ख़ुद अपनी क़ातिल ठहर चुकी थी हज़ार ढूँडो मिरी क़बा पर निशाँ मिलेंगे न उँगलियों के क़ुसूर किस का था कौन जाने न हम ही समझे न तुम पे ज़ाहिर किसी तलब का वजूद हैं हम शिगाफ़ कहते हैं पसलियों के न जाने कब बे-सदा हुआ वो न जाने कब बे-ज़रर हुआ वो अकेला तन इस तरह था उस के हों पर जुदा जैसे तितलियों के हज़ार आँखों के तेज़ नश्तर मिरे बदन में चुभे हुए हैं रक़ीब आँखें समा गई हैं लगे हैं तिल मुझ पे पुतलियों के वो ऐसा पत्थर था जिस के अंदर हज़ार मौसम छुपे हुए थे हसीन लफ़्ज़ों के सच्चे मोती असीर थे उस की उँगलियों के नसीम ही थी जो चल रही थी थकन के एहसास को समेटे हसीन ख़ुशबू से पैकरों को तो नाज़ उठाने थे बिजलियों के