महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना करता है फ़ज़्ल तुझ पर पर्वरदिगार अपना जब से गया वो मह-रू आग़ोश से हमारी रहता है ज्यूँ मह-ए-नौ ख़ाली कनार अपना ज़ुल्फ़-ओ-रुख़-ए-सनम के ग़म में सदा रहे हम गुज़रा हमेशा यूँ ही लैल-ओ-नहार अपना ऐ बे-ख़ुदी-ए-मय तू आ दोश पर उठा ले उठता नहीं मुझ से अब बोझ-भार अपना महबूब हैं जहाँ तक नहीं आश्ना कसू के होते नहीं हैं अपने कीजे हज़ार अपना कहने से शे'र के कुछ हासिल नहीं मगर हाँ ये है कि बा'द अपने हो यादगार अपना आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना 'हुज़ूर' मुझ से क्यूँ मुँह फुला रहा है वो गुल-एज़ार अपना