गुलज़ार में वो रुत भी कभी आ के रहेगी जब कोई कली जौर ख़िज़ाँ के न सहेगी इंसान से नफ़रत के शरर बुझ के रहेंगे सदियों की ये दीवार किसी दिन तो ढहेगी जिस बाप ने औलाद की बहबूद न सोची उस बाप को औलाद अयाँ है जो कहेगी तू जून की गर्मी से न घबरा कि जहाँ में ये लू तो हमेशा न रही है न रहेगी पुख़्ता तिरा ऐवाँ कि मिरा कच्चा मकाँ है सैलाब 'शरीफ़' आया तो हर चीज़ बहेगी