गुलज़ार में ये कहती है बुलबुल गुल-ए-तर से देखे कोई माशूक़ को आशिक़ की नज़र से लो और सुनो कहते हैं वो हम से बिगड़ कर देखो हमें देखो न मोहब्बत की नज़र से वो उट्ठी वो आई वो घटा छा गई साक़ी मय-ख़ाने पे अल्लाह करे टूट के बरसे मय-ख़ाने पे घनघोर घटा छाई है बे-कार खुलना हो तो खुल जाए बरसना हो तो बरसे क्या इश्क़ है क्या शौक़ है क्या रश्क है क्या लाग दिल जल्वा-गाह-ए-नाज़ में आगे है नज़र से इस ख़ौफ़ से मिल लेते हैं वो 'नूह' से अक्सर तूफ़ाँ न उठाए कहीं ये दीदा-ए-तर से