सियाह रात के दरिया को पार करते चलो बस एक दूसरे को होशियार करते चलो उफ़ुक़ के नूर से गर मुतमइन न हो पाओ नसीम-ए-सुब्ह का तो ए'तिबार करते चलो बटोर लाओ ज़रा ख़ुद को चार सम्तों से सफ़ें बना के बढ़ो अब क़तार करते चलो क़याम ताइरो कुछ देर मेरे आँगन में तमाम घर को मिरे ख़ुश-गवार करते चलो तुम्हारी बात से मुझ को तो इत्तिफ़ाक़ नहीं मुख़ालिफ़ों में मुझे भी शुमार करते चलो उसूल एक ही होता है सिर्फ़ जंगल का शिकार बनते रहो या शिकार करते चलो जो सल्तनत है तुम्हारी तो लाज़मी है क्या चमन तमाम को तुम रेगज़ार करते चलो ख़ुलूस ख़र्च करो हाथ खोल कर 'सौरभ' लुटाओ प्यार दिल-ओ-जाँ निसार करते चलो