गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की ये डालियाँ हैं कि हैं डोलियाँ हसीनों की ये आस्तीनें नहीं हैं चुनी हुई ज़ालिम बलाएँ ली हैं निगाहों से आस्तीनों की किसी के जल्वे सर-ए-अर्श छुप नहीं सकते कि दूर रसन हैं निगाहें बुलंद बीनों की पस-ए-फ़ना भी न ख़ाली रहें ये क़स्र-ए-रफ़ी न हों मकीन तो क़ब्रें रहें मकीनों की किस इंतिहा की नज़ाकत है मेरे शे'रों में नज़र लगे न कहीं उन को नुक्ता-चीनों की जो नींद आए तो यूँ आए मौत आए तो यूँ हमारे सामने शक्लें हों मह-जबीनों की हम अपने मुल्क-ए-सुख़न को वसीअ' करते हैं हमें तलाश है हर-दम नई ज़मीनों की उन्हें ग़रज़ मिरी बातें खड़े खड़े सुन लें सुनेंगे बैठ के वो अपने हम-नशीनों की कहाँ वो चाँदनी रातें वो चाँद के टुकड़े न अब वो हम हैं न शक्लें हैं मह-जबीनों की उतरते हैं नए मज़मूँ जो आसमाँ से 'रियाज़' तलाश रहती है हम को नई ज़मीनों की