ख़ून-ए-दिल से किश्त-ए-ग़म को सींचता रहता हूँ मैं ख़ाली काग़ज़ पर लकीरें खींचता रहता हूँ मैं आज से मुझ पर मुकम्मल हो गया दीन-ए-फ़िराक़ हाँ तसव्वुर में भी अब तुझ से जुदा रहता हूँ मैं तू दयार-ए-हुस्न है ऊँची रहे तेरी फ़सील मैं हूँ दरवाज़ा मोहब्बत का, खुला रहता हूँ मैं शाम तक खींचे लिए फिरते हैं इस दुनिया के काम सुब्ह तक फ़र्श-ए-नदामत पर पड़ा रहता हूँ मैं हाँ कभी मुझ पर भी हो जाता है मौसम का असर हाँ किसी दिन शाकी-ए-आब-ओ-हवा रहता हूँ मैं अहल-ए-दुनिया से तअ'ल्लुक़ क़त्अ होता ही नहीं भूल जाने पर भी सूरत-आश्ना रहता हूँ मैं