गुलशन-ए-दहर की फ़ज़ा अब नहीं सोगवार क्या दौर-ए-ख़िज़ाँ से हो गई ओहदा-बरा बहार क्या महरम-ए-ज़ात तो नहीं अक्स'-ए-सिफ़ात-ए-ज़ात हूँ मेरा वजूद वहम है वहम का ए'तिबार क्या साज़-ए-हयात में न हो नग़्मा-ए-सोज़-ए-दिल अगर फिर ये गुदाज़-ए-दर्द क्या फिर ग़म-ए-इश्क़-ए-यार क्या अपनी ख़ुदी को कर बुलंद अपनी ख़ुदी से काम ले आज का ए'तिबार कर कल पे है इख़्तियार क्या