इस क़दर आम न कर अंजुमन-आराई को हम तरस जाएँ मज़ाक़-ए-ग़म-ए-तन्हाई को आज़माया जो कभी उस ने शकेबाई को मंज़िलें ढूँडने निकलीं तिरे सौदाई को सुन के रूदाद-ए-शब-ए-हिज्र जो की नीची नज़र चार चाँद और लगे हुस्न की रानाई को सरमदी कैफ़ फ़क़त इश्क़ के आग़ाज़ में है कोई मतलब नहीं अंजाम से सौदाई को अब अज़िय्यत में कमी आ गई ऐ दौर-ए-फ़लक तूल कुछ और जहान-ए-शब-ए-तन्हाई को तू ने सय्याद असीरों के फ़क़त होंट सीए सल्ब आँखों से भी कर क़ुव्वत-ए-गोयाई को ख़लिश-ए-ज़ुल्मत-ए-अंजाम उसे क्या होगी शब-ए-तन्हाई जो समझे शब-ए-तन्हाई को