गुलशन है इसी का नाम अगर हैराँ हूँ बयाबाँ क्या होगा हंगाम-ए-बहाराँ जब ये है अंजाम-ए-बहाराँ क्या होगा साक़ी के दयार-ए-रहमत में हिंदू-ओ-मुसलमाँ क्या होगा इस बज़्म-ए-पाक-नहादाँ में आलूदा-ए-ईमाँ क्या होगा ये जंग तो लड़ना ही होगी हर बर्ग से चाहे ख़ूँ टपके काँटों से जो गुल डर जाएगा दारा-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा उल्फ़त को मिटाने के दर पे दुनिया और मैं इस सोच में हूँ उल्फ़त न रहेगी जब बाक़ी ख़्वाब-ए-दिल-ए-इंसाँ क्या होगा मैं दूर भी तुम से जी लूँगा तुम मेरे लिए कुछ ग़म न करो माना कि परेशाँ दिल होगा ऐसा भी परेशाँ क्या होगा जिस हाथ में है शमशीर-ओ-तीर क्या उस से उमीद-ए-बर्ग-ओ-समर जो शाख़-ए-नशेमन तोड़ेगा मेमार-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा किस शय पे अभी हम जश्न करें हर-सू काँटे कूड़ा-करकट कुछ रंग-ए-चमन आए तो सही घूरे पे चराग़ाँ क्या होगा जो तिश्ना-लबों के हक़ के लिए साक़ी से लड़े वो रिंद कहाँ जो दस्त-ओ-दहाँ का ख़ूगर है वो दस्त-ओ-गरेबाँ क्या होगा साक़ी की ग़ुलामी कर लेगा और वो भी कुछ क़तरों के लिए नादान सही मुल्ला लेकिन इतना भी वो नादाँ क्या होगा आवाज़-ए-ज़मीर अपनी सुन कर 'मुल्ला' ने बना ली राह-ए-अमल ये फ़िक्र कभी उस को न हुई अंदाज़-ए-हरीफ़ाँ क्या होगा