गुमाँ तो ठीक मैं कैसे कहूँ यक़ीन भी है कि मेरे पाँव के नीचे कहीं ज़मीन भी है दिलों में दुनिया बसाए हुए तो फिरते हो ख़याल रखना कि दुनिया के साथ दीन भी है हमारे जैब-ओ-गरेबाँ में साँप क्या मिलता उसे ख़बर ही नहीं थी कि आस्तीन भी है तरस जो खा के किसी जानवर पे शाह बने हुजूम-ए-शाह में कोई सुबुकतगीन भी है सुख़न-शनास नहीं ज़ूद-गो भी है 'जावेद' पढ़ा-लिखा ही नहीं आदमी ज़हीन भी है