गुमान पड़ता यही है कि रहबरी हुई है ये अपनी राह किसी राह से जुड़ी हुई है हज़ार अब्र मोहब्बत यहाँ बरस भी चुके बस एक शाख़-ए-तमन्ना नहीं हरी हुई है गुज़िश्ता शब से वो है शहर में कहीं मौजूद फ़ज़ा में ख़ुश्बू-ए-वाबस्तगी रची हुई है मिली थी हम को ख़ुदा से बहिश्त के बदले मगर ये ज़िंदगी मेआ'र से गिरी हुई है उफ़ुक़ पे फैला हुआ है फ़िराक़-ए-यार का रंग उदास शाम मिरी गोद में पड़ी हुई है