मेरे बदन में थी तिरी ख़ुशबू-ए-पैरहन शब भर मिरे वजूद में महका तिरा बदन हूँ अपने ही हुजूम-ए-तमन्ना में अजनबी मैं अपने ही दयार-ए-नफ़स में जिला-वतन सब पत्थरों पे नाम लिखे थे रफ़ीक़ों के हर ज़ख़्म-ए-सर है संग-ए-मलामत पे ख़ंदा-ज़न अब दश्त-ए-बे-अमाँ ही में शायद मिले पनाह घर की खुली फ़ज़ा में तो बढ़ने लगी घुटन हर आदमी है पैकर-ए-फ़रियाद इन दिनों हर शख़्स के बदन पे है काग़ज़ का पैरहन ख़ुश-फ़हम हैं कि सिर्फ़ रिवायत परस्त हैं ख़ुश-फ़िक्र थे कि ले उड़े तारीख़ का कफ़न इस दौर में यहाँ भी फ़िलिस्तीन की तरह कुछ लोग बे-ज़मीं हुए कुछ लोग बे-वतन मिस्ल-ए-सबा कोई इधर आया उधर गया घर में बसी हुई है मगर बू-ए-पैरहन 'सरशार' मैं ने इश्क़ के मअनी बदल दिए इस आशिक़ी में पहले न था वस्ल का चलन