गुमराह कह के पहले जो मुझ से ख़फ़ा हुए आख़िर वो मेरे नक़्श-ए-क़दम पर फ़िदा हुए अब तक तो ज़िंदगी से तआ'रुफ़ न था कोई तुम से मिले तो ज़ीस्त से भी आश्ना हुए ऐसा नहीं कि दिल ही मुक़ाबिल नहीं रहा तीर-ए-निगाह-ए-नाज़ भी अक्सर ख़ता हुए मेरी नज़र ने तुम को जमाल-ए-आशना किया मुझ को दुआएँ दो कि तुम इक आईना हुए क्या होगा इस से बढ़ के कोई रब्त-ए-बाहमी मंज़िल हमारी वो तो हम उन का पता हुए अब क्या बताएँ किस की निगाहों की देन थी वो मय कि जिस के पीते ही हम पारसा हुए सुनता हूँ इक मुक़ाम-ए-ज़ियारत है आज कल वो ज़िंदगी का मोड़ जहाँ हम जुदा हुए वो आ गए दवाए-ए-ग़म-ए-जाँ लिए हुए लो आज हम भी क़ाइल-ए-दस्त-ए-दुआ हुए कब ज़िंदगी ने हम को नवाज़ा नहीं 'हफ़ीज़' कब हम पे बाब-ए-लुतफ़-ओ-इनायत न वा हुए