गूँगी चीख़ें बाँझ भूक और इस बेबस सन्नाटे में हम ने अपनी ग़ज़लें खोजीं चूल्हे चौके आटे में सब पर इक इक सुब्ह लुटाने हम सूरज ले बैठे थे अपना क्या है जो न आए वो ही रह गए घाटे में महक उठे तेरे छूने से हम पर सब को यही लगा चंदन की भी रूह छुपी है इस बबूल के काँटे में चोर-उचक्कों के जय-कारों से गूँजे उन के दौरे अक्सर जेबें कटीं हमारी उन के सैर-सपाटे में आज़ादी की खाट पे सोई खादी की उजली नींदें गाँव की दब गई सिसकियाँ दिल्ली के ख़र्राटे में जहाँ कहीं भी कालक देखी हम ने तो बस वार किया पर लोगों को ग़ज़ल नज़र आती है अपने चाँटे में