गुत्थी न सुलझ पाई गो सुलझाई बहुत है जो ख़ूब लुटाई थी वो शय पाई बहुत है फिसलन ये किनारों प ये ठहराव नदी का सब साफ़ इशारे हैं कि गहराई बहुत है डरता हूँ कहीं ख़ुद से न हो जाए मुलाक़ात इस दिल की गुज़रगाह में तन्हाई बहुत है पर्बत सी हक़ीक़त भी दलीलों में पड़े कम बे-पर की उड़ाना हो तो बस राई बहुत है क्या देख के लौटे हैं मोहब्बत की गली से क्या बात है आवाज़ क्यूँ भर्राई बहुत है