हाँ झूट है वो जान से तुम पर फ़िदा नहीं सच कह रहे हो ग़ैर का ये हौसला नहीं याद-ए-बुताँ नहीं कि ख़याल-ए-ख़ुदा नहीं सब कुछ बशर के दिल में है ऐ शैख़ क्या नहीं वाक़िफ़ नहीं हो तुम अभी हाल-ए-रक़ीब से मैं ने बुरा कहा जो उसे क्या बुरा नहीं ठहरे रहो कि बात ही होगी तमाम रात डरते हो क्यों कुछ और मिरा मुद्दआ' नहीं भूली बहिश्त में भी न अंगूर की मुझे जब पी मय-ए-तहूर कहा वो मज़ा नहीं पूरी न कर जो वस्ल की ख़्वाहिश तो क़त्ल कर क्या तेरी तरह तेग़ भी हाजत-रवा नहीं इक मैं हूँ अपने दिल में तुझे देखता हूँ रोज़ इक तू है मुड़ के मेरी तरफ़ देखता नहीं पहले तो उस ने वस्ल का इक़रार कर लिया फिर थोड़ी देर सोच के कहने लगा नहीं ओ सोने वाले सोने न देगी तुझे कभी ये मेरी आह-ए-गर्म है बाद-ए-सबा नहीं जाओ न मुद्दई की मुलाक़ात के लिए तुम आओ या न आओ ये मतलब मिरा नहीं ऐ दिल किधर है कूचा-ए-गेसू से दे सदा ढूँढूँ कहाँ अँधेरे में कुछ सूझता नहीं साए का भी पता नहीं वो आए इस तरह सज्दे कहाँ करूँ कि कहीं नक़्श-ए-पा नहीं साबित है जुर्म-ए-इश्क़ तो दावा-ए-इश्क़ से हम किस तरह कहें कि हमारी ख़ता नहीं बरसात में भी तुम कभी पीते नहीं 'फहीम' ऐसा भी अब पसंद मुझे इत्तिक़ा नहीं