हाँ काहिश-ए-फ़ुज़ूल का हासिल भी कुछ नहीं लेकिन हयात बे-ख़लिश-ए-दिल भी कुछ नहीं अब सोच लो क़दम हैं ज़ियाँ-ए-गाह-ए-शौक़ में कहना न फिर कि जज़्बा-ए-कामिल भी कुछ नहीं गहरा सुकूत चाप की आवाज़-ए-बाज़गश्त रह में भी कुछ न था सर-ए-मंज़िल भी कुछ नहीं जुज़ हिर्स-ए-मंफ़अ'त तह-ए-दरिया भी कुछ न था जुज़ वहम-ए-आफ़ियत लब-ए-साहिल भी कुछ नहीं सब जज़्ब-ए-आरज़ू की तमाज़त का खेल है दिल सर्द हो तो गर्मी-ए-महफ़िल भी कुछ नहीं बदले तो इक नमूना-ए-ए'राज़-ओ-एहतिराज़ यूँ उस निगह की राह में हाइल भी कुछ नहीं 'गौहर' ख़ला में घूरते फिरते हो अब कहो क्या सच है भूलना उसे मुश्किल भी कुछ नहीं