दस्त-बरदार ज़िंदगी से हुआ और ये सौदा मिरी ख़ुशी से हुआ आगही भी न कर सकी पूरा जितना नुक़सान आगही से हुआ मैं हुआ भी तो एक दिन रौशन अपने अंदर की रौशनी से हुआ ज़िंदगी में कसक ज़रूरी थी ये ख़ला पुर तिरी कमी से हुआ दिल तरफ़दार-ए-हिज्र था ही नहीं अब हुआ भी तो बे-दिली से हुआ शोर जितना है काएनात में शोर मेरे अंदर की ख़ामुशी से हुआ कैसा मंसब है आदमी का कि रब जब मुख़ातिब हुआ उसी से हुआ पेड़ हो या कि आदमी 'ग़ाएर' सर-बुलंद अपनी आजिज़ी से हुआ