हाँ यही शहर मिरे ख़्वाबों का गहवारा था इन्ही गलियों में कहीं मेरा सनम-ख़ाना था इसी धरती पे थे आबाद समन-ज़ार मिरे इसी बस्ती में मिरी रूह का सरमाया था थी यही आब-ओ-हवा नश्व-ओ-नुमा की ज़ामिन इसी मिट्टी से मिरे फ़न का ख़मीर उट्ठा था अब न दीवारों से निस्बत है न बाम-ओ-दर से क्या इसी घर से कभी मेरा कोई रिश्ता था ज़ख़्म यादों के सुलगते हैं मिरी आँखों में ख़्वाब इन आँखों ने क्या जानिए क्या देखा था मेहरबाँ रात के साए थे मुनव्वर ऐसे अश्क आँखों में लिए दिल ये सरासीमा था अजनबी लगते थे सब कूचा ओ बाज़ार 'अकबर' ग़ौर से देखा तो वो शहर मिरा अपना था