जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा हर मंज़र-ए-शब ख़्वाब की दीवार लगेगा पल भर में बिखर जाएँगे यादों के ज़ख़ीरे जब ज़ेहन पे इक संग-ए-गिराँ-बार लगेगा गूँधे हैं नई शब ने सितारों के नए हार कब घर मिरा आईना-ए-अनवार लगेगा गर सैल-ए-ख़ुराफ़ात में बह जाएँ ये आँखें हर हर्फ़-ए-यक़ीं कलमा-ए-इंकार लगेगा हालात न बदले तो तमन्ना की ज़मीं पर टूटी हुई उम्मीदों का अम्बार लगेगा खिलते रहे गर फूल लहू में यूँही 'अकबर' हर फ़स्ल में दिल अपना समन-ज़ार लगेगा