हाएल हैं अश्क राह में कैसे नज़र मिले बारिश अगर थमे तो मुसाफ़िर को घर मिले आए चराग़ शाम लगा लूँ गले तुझे दोनों को ये उमीद नहीं है सहर मिले दौर-ए-जदीद में जो बढ़ी फ़ासलों की बात जी चाहता नहीं कि नज़र से नज़र मिले अब तो जुनूँ के हाथ से पत्थर निकल गए अब हम भी चाहते हैं कि शीशे का घर मिले 'सौलत' वो क्या मक़ाम था साअ'त थी कौन सी ठहरे हुए जहाँ तुम्हें शाम-ओ-सहर मिले