हालात अपने ज़ार न बाग़ात ख़ुशनुमा तुझ से बिछड़ के हो गए मअ'ज़ूल ख़ुश-अदा वक़्त-ए-ज़वाल आया तो पुर-ख़ार बन गया वो लहजा-ए-शगुफ़्ता वो अंदाज़-ए-दिल-रुबा फैली है चार सू यहाँ ग़मनाक सियाही ऐ रहबरान-ए-शौक़ रह-ए-तीरगी मिटा बज़्म-ए-ख़याल यूँ तो बहुत ताबनाक थी लेकिन दरून-ए-दिल का अंधेरा न मिट सका खुलता नहीं है शाख़-ए-दुआ पर कोई समर ऐ बख़्त के अमीं तू कोई मो'जिज़ा दिखा अब पार कैसे आएँ बता रहनुमा-ए-वक़्त कश्ती है आब-ग़र्क़ तो सोता है नाख़ुदा ता-उम्र जिस के साथ 'हिरा' गामज़न रहे वो शख़्स कह रहा है हमें आज बे-नवा