हाए इस मजबूरी-ए-ज़ौक़-ए-नज़र को क्या करूँ वो मुझे देखें न देखें मैं उन्हें देखा करूँ हुस्न के हुस्न-ए-नदामत का तक़ाज़ा है कि आज सिद्क़-ए-दिल से फिर यक़ीन-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा करूँ मैं ने माना ज़ामिन-ए-तसकीन-ए-दिल है तर्क-ए-शौक़ लेकिन अपने वाक़िआ'त-ए-ज़िंदगी को क्या करूँ ज़िंदगी शायद अज़ाएम-पर्वरी का नाम है सोचता हूँ हर-नफ़स अब क्या करूँ अब क्या करूँ