हदीस-ए-दर्द को आख़िर बयाँ तो होना था जो कर्ब दिल में छुपा था अयाँ तो होना था वो पास रहते हुए फ़ासलों का क़ाइल था इस एहतिमाम को फिर दास्ताँ तो होना था ज़मीं का ताज था वो शख़्स अपनी हस्ती में ज़मीं से बढ़ के उसे आसमाँ तो होना था दुखों की धूप के इस दौर-ए-बे-मुरव्वत में मुझे किसी के लिए साएबाँ तो होना था तुझे ये किस ने कहा था हिसाब माँग उस से अब ऐसी बात पे जाँ का ज़ियाँ तो होना था जहाँ सभी थे वहाँ पर नहीं था मैं लेकिन जहाँ कोई भी नहीं था वहाँ तो होना था जो मैं न होता सर-ए-दार दूसरा होता किसी को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ज़बाँ तो होना था वो ख़ुद पसंद जफ़ा-कार शख़्स था 'अनवर' नतीजतन उसे बे-कारवाँ तो होना था