है धूप-छाँव की मानिंद ज़िंदगी मेरी सबात-ए-ग़म को नहीं आरज़ी ख़ुशी मेरी उसी को अब मिरी हर बात ज़हर लगती है कभी पसंद न थी जिस को ख़ामुशी मेरी तिरी नज़र का सहारा बड़ा सहारा था जहाँ में कर न सका कोई हमसरी मेरी कभी गुनाह कभी हसरत-ए-गुनाह का ग़म तमाम कर्ब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी मैं दिल का हाल उसी को सुनाता रहता हूँ छुपी न जिस से कोई बात अन-कही मेरी मैं मिस्ल-ए-किरमक शब-ताब जलता रहता हूँ किसी के काम तो आएगी रौशनी मेरी जो मेरे ख़दशा-ए-फ़र्दा पे ख़ंदा-ज़न हैं 'ख़लिश' मिरी दुआ है मिले उन को आ गई मेरी