है धूप कभी साया शोला है कभी शबनम लगता है मुझे तुम सा दिल का तो हर इक मौसम बीते हुए लम्हों की ख़ुशबू है मिरे घर में बुक-रैक पे रक्खे हैं यादों के कई एल्बम कमरे में पड़े तन्हा आसाब को क्यूँ तोड़ो निकलो तो ज़रा बाहर देता है सदा मौसम किस दर्जा मुशाबह हो तुम 'मीर' की ग़ज़लों से लहजे की वही नर्मी बातों का वही आलम साहिल का सुकूँ तुम लो मैं मौज-ए-ख़तर ले लूँ यूँ वक़्त के दरिया को तक़्सीम करें बाहम