है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं मैं ने पलकों से दर-ए-यार पे दस्तक दी है मैं वो साइल हूँ जिसे कोई सदा याद नहीं मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू हम से कहते हैं वही अहद-ए-वफ़ा याद नहीं कैसे भर आईं सर-ए-शाम किसी की आँखें कैसे थर्राई चराग़ों की ज़िया याद नहीं सिर्फ़ धुँदलाए सितारों की चमक देखी है कब हुआ कौन हुआ किस से ख़फ़ा याद नहीं ज़िंदगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं आओ इक सज्दा करें आलम-ए-मदहोशी में लोग कहते हैं कि 'साग़र' को ख़ुदा याद नहीं