तुझ को रखती हूँ अपनी सोचों में

तुझ को रखती हूँ अपनी सोचों में
फूल खिलते हैं कितने रस्तों में

वापसी की नहीं है राह कोई
झाँक बैठी हूँ तेरी आँखों में

मैं भी उन का वजूद लगने लगी
ऐसे खोई हूँ खुलते रंगों में

जिस तरह धूप में शजर कोई
अपना लगता है मुझ को ग़ैरों में

वो बयाँ में तो आ नहीं सकता
इस को लिक्खूँ भला क्या लफ़्ज़ों में

नींद मेरी तो ले गया कोई
कैसे देखूँ मैं इस को ख़्वाबों में

आसमाँ वाले कुछ ख़बर भी है
भूक उगने लगी है खेतों में

कौन सुनता है हाल-ए-दिल 'सय्यद'
लोग बहरे हैं सारे शहरों में


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