है फ़सीलें उठा रहा मुझ में जाने ये कौन आ रहा मुझ में 'जौन' मुझ को जिला-वतन कर के वो मिरे बिन भला रहा मुझ में मुझ से उस को रही तलाश-ए-उमीद सो बहुत दिन छुपा रहा मुझ में था क़यामत सुकूत का आशोब हश्र सा इक बपा रहा मुझ में पस-ए-पर्दा कोई न था फिर भी एक पर्दा खिंचा रहा मुझ में मुझ में आ के गिरा था इक ज़ख़्मी जाने कब तक पड़ा रहा मुझ में इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में