है हक़ीक़त एक लेकिन कितने अफ़्साने बने सैंकड़ों का'बे बने लाखों सनम-ख़ाने बने ग़म रहा साग़र बने पुर-कैफ़ पैमाने बने हम से ही ऐ मुग़्बचों मयख़ाने मयख़ाने बने इब्तिदा ये थी कि हम बनने चले थे होश-मंद इंतिहा ये है कि बनते बनते दीवाने बने बात है दर-अस्ल ये सब अपने अपने ज़र्फ़ की जब न कुछ यारों से बन आई तो दीवाने बने कुछ न कह क़ासिद दिया उस संग-दिल ने क्या जवाब अपनी जान-ए-ना-तवाँ पर क्या ख़ुदा जाने बने उन की ही इस्म-ए-गिरामी का फ़क़त चर्चा नहीं कुछ हमारे नाम नामी से भी अफ़्साने बने चेहरा-ए-गुल-गून-ए-साक़ी से जो टपकी मय बनी मस्त आँखों से जो निकले ढल के पैमाने बने रुख़ के शैदा चाँद तारे ज़ुल्फ़ पर रातें निसार तेरे भी ऐ शम्अ-ए-ख़ूबी कितने परवाने बने ख़ूब चल निकली है क़ैस-ओ-कोहकन की दास्ताँ अक़्ल वाले भी जिसे सुन सुन के दीवाने बने फूल गुलशन में रहे बन कर शराब-ए-रंग-ओ-बू मय-कदे में जब यही पहुँचे तो पैमाने बने पूछते हैं किस तजाहुल से कि ये 'मुस्लिम' है कौन उफ़ रे हम शहर-ए-बुताँ में ऐसे बेगाने बने