हर ग़ुंचे को ख़ुम फूल को पैमाना बना दे जो चाहे तिरा जल्वा-ए-मस्ताना बना दे मजबूर हुआ हूँ ख़िरद-ओ-अक़्ल के हाथों मुझ को ख़िरद-ओ-अक़्ल से बेगाना बना दे हर ज़र्रा-ए-हस्ती को मिरे कैफ़ अता कर टूटा हुआ दिल हूँ मुझे पैमाना बना दे कुछ सोज़ भी कुछ साज़ भी हो दिल की तड़प में ख़ुद शम्अ उसे ख़ुद उसे परवाना बना दे है तिश्ना-ए-मय आज फ़ज़ा सारे चमन की अपनी निगह-ए-मस्त को मय-ख़ाना बना दे देना है अगर मुझ को तो दे दर्द भरा दिल फिर दिल को मिरे दर्द का अफ़्साना बना दे 'मुस्लिम' को है अब ऐसे ही जल्वे की तमन्ना वो जल्वा जो का'बे को भी बुत-ख़ाना बना दे