है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी सच है शायद कि हमें उस से मोहब्बत भी न थी ज़िंदगी और पुर-असरार हुई जाती है इश्क़ का साथ न होता तो शिकायत भी न थी तुझ से छुट कर न कभी प्यार किसी से करते दिल के बहलाने की लेकिन कोई सूरत भी न थी घोर-अँधेरों में ख़ुद अपने को सदा दे लेते राह चलते हुए लोगों में ये जुरअत भी न थी ज़िद में दुनिया की बहर-हाल मिला करते थे वर्ना हम दोनों में ऐसी कोई उल्फ़त भी न थी मर मिटे लोग सर-ए-रह-गुज़र-ए-इश्क़ 'फ़ुज़ैल' अपने हिस्से में ये छोटी सी सआदत भी न थी