है इर्तिबात-शिकन दाएरों में बट जाना चमन का मौजा-ए-बाद-ए-सबा से कट जाना किरन के हक़ में ये सूरज का फ़ैसला क्यूँ है जो फ़र्श-ए-ख़ाक पुकारे तो दूर हट जाना मैं पर-शिकस्ता न था बादलों के बीच मगर मिरी उड़ान का ज़ंजीर से लिपट जाना ये साज़-ओ-रख़्त-ए-दिल-ए-बहरा-मंद क्या शय है तमाम बिखरे हुए दर्द का सिमट जाना ये कौन झाँक रहा था दरीचा-ए-शब से अजब समाँ था घने बादलों का छट जाना कहीं पे दस्त-ए-निगारीं कहीं लब-ए-ल'अलीं वो सोते सोते मिरी नींद का उचट जाना मियान-ए-राह अजब पुर-फ़ज़ा थी गहरी झील मैं डूब जाता कि अच्छा हुआ पलट जाना