है ज़िक्र यही हर सू अब उम्र-दराज़ों में खोई हुई दुनिया है ये शो'बदा-बाज़ों में उस लय से तरन्नुम से मैं कैसे बहल जाऊँ आवाज़ नहीं बाक़ी जब दिल के ही साज़ों में सज्दे हों नुमाइश के फिर कैसे असर होगा मालिक पे दुआओं का बंदे की नमाज़ों में मय्यत में अमीरों की इक जश्न सा रहता है लोगों की कमी क्यों है ग़ुरबा के जनाज़ों में कह देंगे सर-ए-महशर आ'ज़ा-ए-बदन 'अनवर' आ'माल ख़ुदा से सब कुछ होगा न राज़ों में