है मिरी ज़ीस्त तिरे ग़म से फ़रोज़ाँ जानाँ कौन कहता है मुझे बे-सर-ओ-सामाँ जानाँ तेरी यादें मिरे हमराह ब-हर-गाम हैं जब मैं ने समझा ही नहीं ख़ुद को परेशाँ जानाँ नब्ज़-ए-एहसास बहुत सुस्त हुई जाती है दिल को दरकार है फिर दर्द का पैकाँ जानाँ हँसते हँसते नज़र आते थे जहाँ ग़ुंचा-ओ-गुल वीराँ वीराँ सा लगे है वो गुलिस्ताँ जानाँ अब न वो सोज़ न वो साज़ है दिल में फिर भी एक आवाज़ सी आती है कि जानाँ जानाँ ज़िक्र-ए-माज़ी से गुरेज़ाँ हूँ ये सच है लेकिन याद है आज भी मुझ को तिरा पैमाँ जानाँ इतनी तन्हाई का एहसास मुसलसल हो अगर अपने साए से भी डर जाता है इंसाँ जानाँ तेरे हाथों की वो मेहंदी वो तिरा सुर्ख़ लिबास इस तसव्वुर से भी दिल है मिरा लर्ज़ां जानाँ एक मुद्दत हुई गो अहद-ए-बहाराँ गुज़रे चाक है आज तलक मेरा गरेबाँ जानाँ मैं तुझे भूल न पाया तो ये चाहत है मिरी याद रक्खा है जो तू ने तिरा एहसाँ जानाँ आज 'ख़ालिद' के ख़यालात की हर राहगुज़र है तिरे हुस्न के परतव से चराग़ाँ जानाँ