है नहीं कोई नाख़ुदा दिल का दिल ही है एक आसरा दिल का चार-सू बे-ख़ुदी में फिरता है कुछ ठिकाना नहीं रहा दिल का रस्म-ए-दुनिया को क्यूँ ये मानेगा है अलग जग से क़ाएदा दिल का शेख़-ओ-पण्डित को कोई समझाए रब से रहता है राब्ता दिल का राह-ए-इंसानियत ही अव्वल है है यक़ीनन ये फ़ल्सफ़ा दिल का दो-जहाँ भी यहाँ समा जाएँ कितना फैला है दायरा दिल का लब तलक आ के बात ही बदली क्या करे लफ़्ज़ तर्जुमा दिल का अक़्ल कब आएगी तुम्हें 'मोना' मानते क्यूँ हो तुम कहा दिल का