है वफ़ा तुझ में तो पाबंद-ए-वफ़ा हूँ मैं भी मुझ से मिल बैठ मोहब्बत की फ़ज़ा हूँ मैं भी जब भी आ जाए ख़याल उन को दिल-ए-मुज़्तर का लब पे बे-साख़्ता आए वो दुआ हूँ मैं भी हम-सफ़र बन के मिले या बने रहबर अपना कोई तो पूछे कि मंज़िल का पता हूँ मैं भी गूँज सी बन के फ़ज़ाओं में जो हो जाती है गुम मुझ को लगता है कि सहरा की सदा हूँ मैं भी मैं ने चाहा है दिल-ओ-जाँ से 'सबीहा' जिस को वो कभी आए कहे तुझ पे फ़िदा हूँ मैं भी