हैं दिन जो ख़ौफ़ के साए में रात सहमी हुई दिखाई देने लगी काएनात सहमी हुई क़दम क़दम पे है इक ऐसी मौत का साया घरों में रह के भी है ये हयात सहमी हुई यहाँ हों आज रेआ'या कि ज़िल्ल-ए-सुब्हानी कोई नहीं है न हो जिस की ज़ात सहमी हुई सिले हुए तो नहीं हैं हमारे होंट मगर जो बोलते हैं निकलती है बात सहमी हुई बहा रही है नदामत कुछ इस तरह आँसू कि जैसे निकली हो कोई बरात सहमी हुई गुनाह दुनिया में हर-सू हैं सर उठाए हुए कहीं खड़ी है किनारे नजात सहमी हुई कहाँ से आएँगे 'शाहिद' ख़ुशी के मुतरादिफ़ है लफ़्ज़ लफ़्ज़ हमारी लुग़ात सहमी हुई