हो न मुझ से किसी सूरत भी मिरा घर नाराज़ इस लिए रहता हूँ ख़ुद से ही मैं अक्सर नाराज़ कर नहीं सकता कभी चाह के भी ख़ुद को अलग लाख दरियाओं से रहता हो समुंदर नाराज़ बादशाहत के वही होते हैं सच्चे हक़दार जिन से होता न हो कोई भी क़लंदर नाराज़ मेरी आईना-मिज़ाजी ही मिरा सब कुछ है मुझ से होते हैं तो होते रहें पत्थर नाराज़ उन बुज़ुर्गों की बहुत याद अब आती है मुझे जो बिला-वज्ह भी हो जाते थे मुझ पर नाराज़ जिन से होता है इज़ाफ़ा मिरी बीनाई में अब न आँखों से हो ऐसा कोई मंज़र नाराज़ रतजगे हो गए जिस दिन से मुक़द्दर 'शाहिद' रात-भर रहने लगा नींद से बिस्तर नाराज़