हैं मिज़ाज आसमाँ पे जिस-तिस के नाज़ उठाएँ भी हम तो किस किस के बिजलियों के सुनहरी हर्फ़ों में बादलों पर हैं दस्तख़त किस के आँख से गर छलक नहीं पाते दिल पे गिरते हैं अश्क रिस रिस के जाने कब होवे दीदा-वर पैदा दीदे पथरा गए हैं नर्गिस के पाँव चादर में रह न पाएँगे हाथ फैले रहेंगे जिस जिस के आरज़ूओं के सूखते गुलबन मुंतज़िर यासियत की माचिस के कम से कम घर को घर तो रहने दें रखें ऑफ़िस को अंदर ऑफ़िस के अक्स-ए-दौराँ 'नक़ीब' की ग़ज़लें सिलसिले चंद रत्ब-ओ-याबिस के