हैरान बहुत ताबिश-ए-हुस्न-दीगराँ थी तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ में कहाँ थी फैला किए दरिया-ए-मोहब्बत के किनारे उन झील सी आँखों में कोई चीज़ निहाँ थी हर जश्न-ए-तरब-नाक पे मज्लिस का असर था हर उड़ते हुए बोसे में गर्द-ए-ग़म-ए-जाँ थी या अर्ज़-ए-यक़ीं पर थी बिछी बर्फ़ की चादर या घेरे हुए फिर मुझे दुनिया-ए-गुमाँ थी हम बारगह-ए-वस्ल के ठुकराए हुए लोग इक सोहबत-ए-अय्याम थी सो नज़र-ए-फ़ुग़ाँ थी हम ज़ब्त के मारों का अजब हाल था 'साक़िब' जो बात छुपानी थी वो चेहरों से अयाँ थी