न पूछ ऐ नूर-ए-शम्अ'-ए-हुस्न परवानों पे क्या गुज़री हुआ शो'ला-फ़िशाँ जो तू तो दीवानों पे क्या गुज़री बताएँ अहल-ए-दिल दुनिया के ईमानों पे क्या गुज़री मसाजिद पर पड़ीं चोटें तो बुतख़ानों पे क्या गुज़री जलाना बर्क़ का तो शग़्ल था गर घर जला डाले वो क्यों ये सोचती दुनिया के ख़स-ख़ानों पे क्या गुज़री बताओ तो ज़रा इंसानियत के नाम-लेवाओ कि ख़ुद इंसान के हाथों से इंसानों पे क्या गुज़री निगाहों का वो हल्का सा तसादुम है मआ'ज़-अल्लाह फिर इस के बा'द क्या कहिए कि दीवानों पे क्या गुज़री मुसल्लम तेरी ताबानी बजा ऐ शम्अ' ज़ौ तेरी मगर ये भी कभी देखा कि परवानों पे क्या गुज़री दर-ए-ज़िंदाँ पे वो मग़्मूम-ओ-आज़ुर्दा से बैठे हैं इलाही ख़ैर हो आज उन के दीवानों पे क्या गुज़री दुआएँ मय-कशों की फिरती हैं भटकी हुई 'हैरत' ये क्यों बाब-ए-असर है बंद मय-ख़ानों पे क्या गुज़री