हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का मकाँ तो है पे ठिकाना नहीं मकीनों का खिला जो बाग़ में ग़ुंचा सितारा-दार खिला गुलों ने नक़्श उतारा है मह-जबीनों का है अपनी अपनी तबीअत पे हुस्न-ए-शय मौक़ूफ़ मैं क्यूँ हूँ बंदा-ए-बे-दाम उन हसीनों का नज़र का क्या है भरोसा नज़र पे हैं पर्दे ख़याल अर्श पे जाता है दूर-बीनों का ज़मीन-ए-शोर हो या हो ज़मीन-ए-शेर ऐ दिल नहीं है कोई ख़रीदार इन ज़मीनों का बहिश्त-ए-दहर है अपना वतन ख़ुदा की क़सम जुदा जुदा है तराना सभी महीनों का किसी को मान लिया दिल ने जब तो मान लिया न दख़्ल दो यही मस्लक है ख़ुश-यक़ीनों का जो हो मुसव्विर-ए-फ़ितरत मिसाल क्या उस की गुमाँ न चाहिए इंसाँ पे आबगीनों का ज़रा निकल के तो दुनिया से देख ऐ इंसाँ पता न दिन का न अंदाज़ है महीनों का सिखा दिया मुझे बच बच के रास्ता चलना ख़ुदा भला करे ऐ 'शाद' नुक्ता-चीनों का