हज़ार इल्म की ज़ौ से दिमाग़ रौशन हो जो दिल में आतिश-ए-पिन्हाँ नहीं तो कुछ भी नहीं बहार में तो है नग़्मा-सरा मगर बुलबुल अगर ख़िज़ाँ में ग़ज़ल-ख़्वाँ नहीं तो कुछ भी नहीं हैं यूँ तो अशरफ़-ए-मख़्लूक़ हम ज़माने में मगर अमल में जो इंसाँ नहीं तो कुछ भी नहीं मिरी नवा है परेशाँ तो ऐब क्या इस में नसीम-ए-बाग़ परेशाँ नहीं तो कुछ भी नहीं सदफ़ है आँख तो आँसू है क़तरा-ए-नैसाँ सदफ़ में क़तरा-ए-नैसाँ नहीं तो कुछ भी नहीं चमन से दूर भी हो अंदलीब-ए-बाल-कुशा मगर असीर-ए-गुलिस्ताँ नहीं तो कुछ भी नहीं