इश्क़ की कोई इंतिहा ही नहीं इस मरज़ की कोई दवा ही नहीं आए देखा मुझे हँसे और फिर चल दिए कुछ कहा सुना ही नहीं उस से नज़रें मिलीं थीं पल भर को दिल कहाँ खो गया पता ही नहीं मैं नज़र में बसी हूँ मान भी लो आइना झूट बोलता ही नहीं उस को ज़िद है कि अब नहीं मिलना दिल है पागल के मानता ही नहीं मुझ से मुझ को चुरा के ले जाता पहले तुम सा कोई मिला ही नहीं कितने दिन हो गए कि फ़ोन तिरा कान में शहद घोलता ही नहीं रात इक अजनबी मिला था 'वफ़ा' नींद फिर क्या हुई पता ही नहीं