हज़ार ज़ख़्म मिले फिर भी मुस्कुराते हुए गुज़र गया है कोई रास्ता बनाते हुए वो पूछ बैठा था मुझ से सबब बिछड़ने का ज़बान काँप गई उस को सच बताते हुए ये किस गुनाह का एहसास है मिरे दिल को निगाह उठती नहीं रौशनी में आते हुए अज़ाब पूछे कोई हम से कम-लिबासी का तमाम उम्र कटी है बदन छुपाते हुए तुम्हारे नाम के आँसू हैं मेरी आँखों में ये बात भूल न जाना मुझे रुलाते हुए